बुधवार, अक्तूबर 20

कविता : मरना ही हैं सरल

मरना ही हैं सरल
मुसाफिर चला हैं लेके अपने खाली हाथो को ,
तुम भी तो समझो मुसाफिर की इंसानियत को....
सफ़र हैं बहुत ही दूर,
पर उसकी ताकत हो चुकी हैं चूर....
मुसाफिर चला हैं अपना पेट भरने को,
पेट के वास्ते सभी को छोड़ा एस ज़माने को .....
किसी को छाया हैं अमीरी का नशा,
कंगाल वही हैं जो न देखे गरीबो की दशा....
मुसाफिर चाहे मारे चाहे भूखे ही तडपे ,
हर कोई उसको ही हदाकाए.......
पेट भरना बड़ा ही हैं मुश्किल,
इससे अच्छा मरना ही हैं सरल....
लेख़क आशीष कुमार

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