थकी हुई सी पलकों पे भी ख्व़ाब आते हैं,
सहर होने को है ये शोर बेहिसाब आते हैं।
हों मुफलिसी ग़रीबी के दर्द लाखों फिर भी,
हँस के जीने के तरीके लाजवाब आते हैं।
जर्ज़र है दर-ओ-दीवार घर की तो क्या हुआ,
हमारे ख़यालों में गुम्बद और मेहराब आते हैं।
हम भूलते हैं राह जो कहीं भी सफर में,
तो राह बताने चाँद और आफ़ताब आते हैं।
थक हार के जब कहते हैं कि कुछ ना बदलेगा,
हवाओं के साथ तभी नज़्म-ए-इन्क़लाब आते हैं।
सहर होने को है ये शोर बेहिसाब आते हैं।
हों मुफलिसी ग़रीबी के दर्द लाखों फिर भी,
हँस के जीने के तरीके लाजवाब आते हैं।
जर्ज़र है दर-ओ-दीवार घर की तो क्या हुआ,
हमारे ख़यालों में गुम्बद और मेहराब आते हैं।
हम भूलते हैं राह जो कहीं भी सफर में,
तो राह बताने चाँद और आफ़ताब आते हैं।
थक हार के जब कहते हैं कि कुछ ना बदलेगा,
हवाओं के साथ तभी नज़्म-ए-इन्क़लाब आते हैं।
.... मोहम्मद ज़फ़र
अतिसुन्दर...आभार
जवाब देंहटाएंbahut khub
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