सोमवार, नवंबर 8

कविता: सब्जी की गाड़ी

सब्जी की गाड़ी


आलू बैगन की थी गाड़ी,
उसमें बैठी दस सवारी...
पहिया बने थे धनिया भइया,
हार्न बनी थी लौकी...
स्टेरिंग बने थे कद्दू जी,
गेयर बनी थी मूली...
लाइट बने थे लाल टमाटर,
दिन में बैठे थे मुंह बंद कर...
जैसे ही अँधेरा घिर आता,
चलते थे अपना मुंह खोलकर...
सीट बने थे गोभी जी,
ड्राईवर बने थे शलजम जी....
एक दिन की हम बात बताएं,
सभी जरा सा गौर से सुनिए...
शाम को सूरज ढलने को आया,
चारो तरफ़ अँधेरा छाया...
आपस में दो गाड़ी लड़ गई,
एक दूजे से दोनों भिड गई
एक थी लकड़ी की गाड़ी,
दूजी थी सब्जी की गाड़ी...
सब्जी की गाड़ी टूट गई,
अलग - अलग वो छिटक गई...
सवारी सारे कूद पड़े थे,
गाड़ी से वे दूर खड़े थे...
सबने मिलकर सब्जी को उठाया,
घर ले जाकर सबको बिठाया...

 घर में सबने सब्जी बनाया,
बच्चे बूढे सबने मिल खाया...



लेखक: आदित्य कुमार

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